Friday 14 April 2017

न जाने कब (गाना)

यह मासूमियत,
यह जवानी,
ले जाती है हमसे,
हमारी सुकून -भरी ज़िन्दगी |

न जाने कब,
हम हुए जवान,
न जाने कब,
इंसान से बन गए हैवान |

कुछ देर अगर,
सोच में पड़ जाते,
तो शायद ज़िन्दगी,
में हर मुश्किल से लड़ जाते |

कभी नहीं की हमने,
खुदा से शिकायत,
हर देन पर उसकी,
की है उस चीज़ की इज़्ज़त |

न जाने कब,
ऐसी मुश्किलें आ गई,
कि हर कदम सोच में डूबकर,
माँगते थे हम उससे अपनी पुरानी ज़िन्दगी|

कुछ न रहा अब बस में,
प्रार्थनाओं के सिवा,
हर वक़्त, हर घड़ी,
केवल दर्द है मिला |

हैवान तो बन ही गए हम,
अपना हक़ माँगते-माँगते,
खुद को कोसने लगे हम,
सोते-जागते |


न जाने कब,
खुशियाँ बन गई आँसू,
न जाने कब,
बदलेगी इस ज़िन्दगी की हर पहलू | 

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